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कविता

स्थिति-बोध

नीरजा हेमेंद्र


फागुन माह प्रारंभ होते ही
दादी कहती थी - ओ बेटवा, खेत में चला जा
सीजन आवे का है
फसल कटाई का
मुझे नहीं भाते थे दूर-दूर तक विस्तृत
हरे-भरे खेत, खलिहानों पर खड़े बैल और बैलगाड़ियाँ
मैं भाग जाता था हरी पगडंडियों पर
देखता था माँ को जो
कच्चे-पक्के बड़े से घर के दालान को
जो घर से भी बड़ा था
झाड़ती हुई, मुझे देखती रहती भावशून्य आँखों से
दादी की धीरे-धीरे दूर होती आवाज
माँ की शब्दहीन आँखें, मनुहार पूर्ण घूरना
मुझे याद आते हैं अब
शहर के एक कमरे के
सरकारी मकान में
शहर में सब कुछ है
सड़कें, भीड़, कोलाहल, असंख्य मकान, वाहन अकेलापन
सब कुछ
इन सबमें अंतर्हित होता हुआ मैं
ऊर्णनाभि की भाँति।


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